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क्रांति कन्या

क्रांति कन्या 

वो क्रन्तिकारी थी
मतवारी थी
चली जा रही थी
इन्कलाब के गाने गाते
और हम खुद की आज़ादी के
सपनों संग
उसके पीछे चले जाते

यही लड़की समा गयी थी
अंधे की आँखों में
लंगड़े की नसों में
जब येरुसलेम में उसने हमें
छू
और इस सुनहरी शाम का अंत
उस दर्दनाक क्रूस पर हुआ |
 

वो क्रन्तिकारी थी
मतवारी थी
चली जा रही थी
इन्कलाब के गाने गाते
और हम खुद की आज़ादी के
सपनों संग
उसके पीछे चले जाते

तिरंगे में लिपटी
ये लड़की
गयी थी डांडी
हमने नमक बनाया
और इसी नमक का क़र्ज़ चुकाने को
किसी ने उसे मार गिराया |
 

वो क्रन्तिकारी थी
मतवारी थी
चली जा रही थी
इन्कलाब के गाने गाते
और हम खुद की आज़ादी के
सपनों संग
उसके पीछे चले जाते

इसी लड़की के गीतों को
नए शहर के लोगों ने गाया
उसी देश के शासक ने
विएतनाम को जलाया
और किताबें भरी आज़ादी के गीतों से
और अगले दिन आकाश को खाली सा पाया |

इस क्रान्ति कन्या के बच्चे
जो कौवे की तरह जन्मे थे
अनाथ कहलाये
स्कूल गए
पर
धूप नहीं पहुंची
सपने देखे -
आज़ादी नहीं
भूतों के !
सुनसान सड़कों पर
'माँ-माँ' चिल्लाकर सो गए
भूखे पेट
बगल से ट्रेन गुज़री
और ऐसे ही किसी दिन
इन बच्चों ने अपने यूनिफॉर्म को जला दिया |

उस दिन
मैं भी नहीं समझ पाया
जब उस लड़की ने
मेरे जूते के फीते बांधे थे
और कान में प्यार से कहा था-
"संभल कर चलना
गिरना मत ||" 


                                     -Sourav Roy "Bhagirath"

झारखण्ड

झारखण्ड 

खनिज-कोयला-जंगल के देश में
मांदल नगाड़ा बजाता
तमाखू खाता
गुज़रता है तुफू सोरेन
गाता-
'पहाड़ तोड़ने से अच्छा है
पहाड़ बन जाना'

उसकी स्त्री
गमछे में बच्चे को
पीठ पर लटकाकर
बीनती है चटाई
जो पहुँच जाती है
इन्द्रप्रस्थ की सड़कों पर
उसकी बहन के साथ बिकने को |

तीर धनुष से
खेलता
उसका बच्चा
मार गिराता है मोर को
ख़ुश है तुफू सोरेन
पेट भरेगा आज !
अगले दिन बच्चा
बन्दूक पकड़
तैयारी करता है
शहर जाने की ||


                                   -Sourav Roy "Bhagirath"

अभी यहाँ...

अभी यहाँ...

अभी यहाँ
मैं बैठा हूँ

अभी यहाँ
तुम होती

अभी यहाँ
समंदर किनारे हम टहल रहे होते

और समंदर हमारी धड़कन सुन रहा होता
अभी यहाँ
ऊपर वो चाँद और तारों से सजा आकाश
हमारे संग दौड़ रहा होता
हमारा हाथ थामे

अभी यहाँ कोई नहीं होता
और मैं तुम्हारी आँखों में डूब जाता
और ये गाती गुनगुनाती ज़िन्दगी
यूं ही बीत जाती
अभी यहाँ
दुनिया ठहर जाती
सब कुछ धीरे धीरे हमारा हो जाता
ये दुनिया हमारी हो जाती
और हम एक दूसरे के हो जाते

अभी यहाँ
एक तारा टूटता
और हम एक दूसरे को मांग लेते
और वो तारा भी हमारा हो जाता

अभी यहाँ
तुम नंगे पाँव दौड़ती चली आती
और मैं तुम्हे देखता
और तुम सच्चे झूठे बहाने बना
मुझसे लिपट जाती

अभी यहाँ
मैं तुम्हे जगाता
तुम्हारी जुल्फों की लटों को सुलझाता
और तुम आँखें खोल
मुझे देखती

अभी यहाँ
मैं मर रहा होता
और तुम्हे अगले जन्म में फिर मिलने का वादा कर
मैं सुकून से तुम्हारी बाँहों में मरता
अभी यहाँ
मैं बैठा हूँ

काश यहाँ
तुम होती !


                                  -Sourav Roy "Bhagirath"

Anabhra Ratri Ki Anupama

Anabhra Ratri Ki Anupama is a collection of 101 poems by Sourav Roy "Bhagirath". This book is available. To grab a copy for yourself, contact sourav894@gmail.com

Front Cover




Back Cover




Introduction To Anabhra Ratri Ki Anupama By Rajat Agarwal 
I have seen people who are philosophers. These people who are essentially feelers by nature, the ones who seem to understand human emotions to the core. Making use of analogy and art, these people are masters at expression. Then these are those who are workers. These are the people who take the philosophical guidelines and convert them into actions. Logical and work oriented, they are straightforward and direct. Sourav has been a pleasant surprise to this understanding of mine. He is a philosophical worker. A person who thinks and feels.
It is hard to believe that a person at such a young age can feel human emotions the way he does. Behind his youthfulness you will find a very sensitive person. His poems are a window into the contemporary society. His poems speak about human pain in a mesmerizing manner that is sure to leave a deep impact in your heart. Sometimes while reading the poems he has written, I have felt my reasonable self give way to the emotional self, felt my heart feel the emotions the poet in him depicts so beautifully.
I am sure Sourav's work will make its mark in the field of literature. And for you, it is surely going to be a wonderful reading, heart touching reading.
Rajat Agarwal
Sankalp India Foundation


Here are some glimpse of the book launch-
(Click on the thumbnail to visit the album)

Anabhra Ratri Ki Anupama 1st Edition Launch


Anabhra Ratri Ki Anupama 2nd Edition Launch


The first edition of this book was launched on 15th August, 2009. It was launched in a seminar hall among my people, my family; the Sankalp volunteers.


The second edition of this book was launched on 4th November, 2009. It was inaugurated by my department HOD, Dr Ashwatha Kumar.






"Rashtragaan" in author's voice


"Kramshah" in author's voice


"Joker" in author's voice


"Chappal Se Lipti Chahatein" in author's voice

Price- Rs 140 (Postal charges extra)
Contact- sourav894@gmail.com

क्रमशः

क्रमशः 

I
वो आंसू पीता हुआ बोला -
"हमका माफ कर दीजे हुजुर"
पर ठेकेदार पीटता रहा -
"बहुत देखे तेरे जैसे मजूर !
नेतागिरी दिखाते हो ?
कामचोरी करते हो ?
पहले तो काम के लिए रोते हो..
जो मिलता है तो सर पर ही चहड़ जाते हो !"
"मगर हम तो..."
"चोप्प साला ! बहस करता है
मुह ना दिखाना |
पेट सीने में दफन हो जाए
तब भी ना आना |
बहस करता है !
आँख दिखता है |"
ठेकेदार ने हाँफते हुए आखिरी लात लगायी
थक गए थे जनाब |
थूक कर चलने लगे...
"हाँ कमजोर को तो सभी सताते है साहब !"
बाकी मज़दूरों ने उसे उठाया
"मालिक लोग का
मू काहे लगते हो ?
इन्ही का रहम से घर में कभी कभार चूल्हा जलता है..."
वह चुपचाप वहां से चल दिया..
मुह के खून को भी गोट लिया...
थूकता तो मालिक गुस्सा करते !


II
लड़खड़ाते कदम
अपनी झोपड़ी की ओर बढ़ते जाते थे |
कोई देहाती गीत मानों लबों पर आते थे
पर कराहने से फुर्सत न मिलता |
"साला... कहता है कि कामचोर है
बहस करता है
पगार बढ़ाने कि बात
की थी
मु... मुन्ना बीमार है..."
आंसू पोंछ उसने दरवाजा खटखटाया
अन्दर चुप्पी थी |
उसने दरवाज़े पर अपने लड़खड़ाते हाथ दे मारे |
बीवी ने कपाट खोला |
"का हुआ जी इतना खून...!!"
"का कर रही थी इत्ती देर !
कबसे दरवाजा पीट रखे हैं हम..
तनिक जल्दी नहीं आ सकती थी !"
"आ ही तो रही थी, वो मुन्ना..."
उसने बीवी के बाल झपट लिए
उसे ज़मीन पर गिरा दिया
और बेरहमी से पीटने लगा |
बीवी रो रही थी - "काहे मारते हो..
कमजोर को काहे सताते हो..."
"बहस करती है
आँख दिखाती है !"
वो मारता जा रहा था |


-क्रमशः

                                            -Sourav Roy "Bhagirath"

चप्पल से लिपटी चाहतें

चप्पल से लिपटी चाहतें... 

चाहता हूँ
एक पुरानी डायरी
कविता लिखने के लिए
एक कोरा काग़ज़
चित्र बनाने के लिए
एक शांत कोना
पृथ्वी का
गुनगुनाने के लिए |
 

चाहता हूँ
नीली - कत्थई नक्शे से निकल
हरी ज़मीन पर रहूँ |
चाहता हूँ
भीतर के वेताल को
निकाल फेकूं |
खरीदना है मुझे
मोल भाव करके
आलू प्याज़ बैंगन
अर्थशास्त्र पढ़ने से पहले |
चाहता हूँ कई अनंत यात्राओं को
पूरा करना |
बादल को सूखने से बचाना चाहता हूँ |
गेहूं को भूख से बचाना चाहता हूँ
और कपास को नंगा होने से |
रोटी कपड़े और मकान को
स्पंज बनने से बचाना चाहता हूँ |
इन अनथकी यात्राओं के बीच
मुझे कीचड़ से निकलकर
जाना है नौकरी मांगने...||


                                             -Sourav Roy "Bhgirath"

जोकर

जोकर

मुझे घड़ी के अलार्म पर उठाना है
कुकर की सीटी का इंतज़ार करना है
और अपनी मौत पर मर जाना है |
मुझे बिना शहीद हुए भी मरना आता है !
सवाल ये नहीं है
परन्तु जवाब है-
'मुझे क्या करना आता है?'

                                            -Sourav Roy "Bhagirath"

राष्ट्रगान

राष्ट्रगान

जहां प्यार करने के लिए
दिल होने से ज्यादा गुंडा होना ज़रूरी है |
जहां 'सत्य' शब्द का इस्तेमाल
केवल अर्थी ले जाने पर किया जाता है |
जहां का राष्ट्रीय पशु कीचड़ में रहता है |
और राष्ट्रीय पुष्प भी कीचड़ में ही बहता है |
जहां के डॉक्टर थर्मामीटर पढ़ना नहीं जानते
और कुत्ते अपने बच्चों को नहीं पहचानते |
जहां का हर चोर प्रधानमंत्री बनना चाहता है |
और हर नेता अभिनेता; और हर अभिनेता नेता |
जहां की आज़ादी का जशन
ढोल ताशों संग मनाया जाता है
और अगले रोज़ गटर में बहता तिरंगा पाया जाता है |
जहां टीवी, रेडियो, फ्रीज रिश्ते तय करते हैं
और लड़की के हाथ की लकीरों को फाड़कर
उसमे खून की मेहंदी रच दी जाती है |
जहां के सरहद निर्दोषों के खून से रंग दिए जाते हैं
सीज़फायर के लिए |
जहां के श्रेष्ठ अस्पताल में मरीज़ मर जाता है
क्योंकि उसे रक्तदान करने वाला सूई से डर जाता है |
जहां के मजूर भूखे पेट मर जाते हैं
और उसके मालिक के कुत्ते बिस्कुट खाने से मुकर जाते हैं |
जहां के मध्यम वर्गीय लोग साले मरते न जीते हैं
खूंटे पर अपनी इज्ज़त को टांग, अपना ही खून पीते हैं |
जहां का बेटा प्यार में औन्धे मुंह इस कदर गड़ जाता है
माता पिता के सपनों से खेल, काठ सा अकड़ जाता है |
जहां लड़की के जन्म पर शोकगीत गाई जाती है
फिर उसके मौत पर गरीबों में कचौड़ी खिलाई जाती है
जहां मिट्टी के कीड़े, मिट्टी खाकर, मिट्टी उगलते हैं
फिर उसी मिट्टी पर छाती के बल चलते हैं |
जहां कागज़ पर क्षणों में फसल उगाए जाते हैं |
और उसी कागज़ में आगे कहीं वे
गरीबों में जिजीविषा भी बंटवाते हैं |
जहां चीख की भाषा छिछोरी हो गयी है
लेटेस्ट फैशन गालियों का है |
उस नपुंसक किन्तु सभ्य समाज में
कुछ कुत्तों के बीच घिरा अकेला कुत्ता
फिर भी चीखता है -
" घिन्न होती है सोचते हुए कि
छुटपन में मैंने कभी गाया था -
सारे जहाँ से अच्छा... "


                                           -Sourav Roy "Bhagirath"